राहत इंदौरी का निधन: अमीर और ग़रीब
राहत इंदौरी साहब नहीं रहे। वे एक बेमिसाल शख़्सियत थे जो फ़न और ज़ुबान की दौलत से लबरेज़ थे, और उन्होंने ये दौलत इंसानियत और शायरी की बेहतरी में लुटाई। वो अपने पीछे शायरी का एक नायाब ख़ज़ाना छोड़ कर गए हैं। राहत साहब एक त्रिवेणी थे जिनमें शायरी-औ-आवाज़-औ-अंदाज़ की गंगा-जमुना-सरस्वती बहती थी। ख़ुदा ऐसी अमीरी सबको अता करे।

बदक़िस्मती से, कल एक बहुत ग़रीब इंसान से भी मुलाक़ात हुई जो राहत साहब के निधन पर ख़ुश थे क्योंकि उनके अनुसार राहत साहब जेहादियों को भड़काते थे। ग़रीब इसीलिए कि उनके पास किसी की मौत पर चंद आँसू बहाने को भी न थे। सच है, मजहबी और क़ौमी कट्टरता से पैदा हुई नफ़रत की आग ज़िन्दगी का सारा रस ही सुखा देती है। फिर अंदर न मोहब्बत बचती है, न हमदर्दी। "अपने अपने" ख़ुदा के लिए जेहाद करने वाले फ़रिश्ते तो बन जाते हैं, इंसान नहीं बन पाते।

वैसे, मेरे उस्ताद ने बताया था जेहाद के मायने: जेहाद जद्दोजहद से बना है जिसके मायने हैं संघर्ष। और उन्होंने कहा था कि इसके पहले कि मजहब के लिए जेहाद करो, अपने अंदर की नफ़रत, जहालत, और तारीकी से जेहाद करो।

और इतना तो करो कि किसी की मौत पर थोड़ा अफ़सोस कर लो।
"ख़ुदा हमको ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे"